संस्कृति एवं संभ्यता

दिव्य कुंभ – भव्य कुंभ

आध्यात्मिकता और संस्कृति को संजोने की मुहिम से जुड़े उत्तराखंड के हल्द्वानी निवासी संस्कृति कर्मी गौरीशंकर कांडपाल देश की संस्कृति से सरोकार रखने वाली जानकारियों का प्रसार-प्रसार करते रहते हैं। भारतीय संस्कृति के अटूट आस्थावान पर्व प्रयागराज कुंभ भ्रमण के दौरान जुड़े अनुभव को साक्षात साकार करता प्रस्तुत है उनका लेख:- ” दिव्य कुंभ – भव्य कुंभ ” 

निसंदेह इस बार के कुंभ का आयोजन बीते किसी भी कुंभ की तुलना से कहीं अधिक आध्यात्मिक, अलौकिक और श्रद्धा भाव लिए हुए है। श्रद्धालुओं की सुरक्षा, आवास एवं आवागमन की सुविधाएं, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा व्यवस्था, साफ-सफाई, भीड़ में बिछड़ों को अपनों से मिलाने की कवायद, 24 घंटे आपातकालीन सेवाएं आदि चंद उदाहरण हैं जिनसे कुंभ क्षेत्र में शासन-प्रशासन की व्यवस्था और पूर्व तैयारी को सराहना गलत न होगा।
कुंभ देश का विराट सांस्कृतिक आयोजन है। प्रयागराज का कुंभ कई मायनों में अद्भुत है। आस्था और विश्वास का ऐसा समागम हमें अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। सिंह राशि में सूर्य के आते ही कुंभ का प्रारंभ हो जाता है और महाशिवरात्रि तक यह अनुष्ठान सतत रूप से चलता रहता है। इस बार छह प्रमुख दिवसों मकर संक्रांति ,पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के अवसर पर शाही स्नान का आयोजन किया जा रहा है।

प्रयागराज में प्रवेश करते ही शहर की दीवारें सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती नजर आती हैं। रेलवे स्टेशन हो या फिर बस अड्डा सभी प्रमुख सार्वजनिक स्थानों पर हमें अतीत से लेकर वर्तमान सांस्कृतिक परिवेश के दीदार होते हैं। प्रयागराज की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि इस तरह तैयार की गई है, मानो आप भारत के विभिन्न हिस्सों के साक्षात दर्शन कर रहे हों।

कुंभ नागा बाबाओं, साधुओं और गृहस्थों सभी के लिए पुण्य प्राप्त करने एवं स्वयं को शीर्षस्थ आध्यात्मिक चेतना से जोड़ने का एक केंद्र है। सांसारिक मोह-माया के बंधन का त्याग कर ईश्वर की भक्ति और अपने आप को अध्यात्म में समर्पित करने का एक माध्यम कुंभ है। यही कारण है कि , इतनी अधिक संख्या में श्रद्धालु पावन संगम स्थान पर श्रद्धा की डुबकी लगाकर अपने आप को धन्य महसूस करते हैं।

गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के पावन संगम पर देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से करोड़ों श्रद्धालुओं, संत- महात्माओं एवं अन्य पर्यटकों का तांता लगा हुआ है। यह नजारा देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो हिमालय से कन्याकुमारी तथा अरुणांचल से गुजरात तक की दूरी सिमट कर प्रयागराज के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई है। संसार के सबसे बड़े पर्व के रूप में कुंभ 2019 राष्ट्र की भावनात्मक एकता का प्रतीक बनकर उभरा है। इस पर्व का आकर्षण ऐसा है कि, देश के विभिन्न हिस्सों से गांव से, शहरों से झोपड़ियों से और महलों से लोग प्रयागराज कुंभ में स्नान करने के लिए पहुंच रहे हैं।

भारतीय संस्कृति के प्रतीक गंगा नदी चिरकाल से ही जनमानस के इहलौकिक एवं पारलौकिक कष्टों का निवारण करने के लिए धरती पर सनातन रूप से प्रवाहमान है। यही कारण है कि दिग-दिगंतर से श्रद्धालु कुंभ के दौरान मां गंगा के पावन चरणों में अपने कर्म एवं पापों का तरो-तारण करने के लिए बिना किसी निमंत्रण के आते हैं, जिसका एकमात्र उद्देश्य होता है, पुण्य लाभ एवं मोक्ष की प्राप्ति।

गंगा की महत्ता की कुछ ऐतिहासिक मान्यतायें:

सम्राट हर्षवर्धन ने दान कर थी धन संपदा:

कुंभ मेले के आरंभ के विषय में इतिहास के ग्रंथों में कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है किंतु, लिखित प्राचीनतम वर्णन सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसे चीन के प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग द्वारा लिखा गया है। ह्वेनसांग लिखते हैं कि हर्षवर्धन ने तीर्थराज प्रयाग में आकर अपनी समस्त धन संपदा का दान कर दिया जाता था।

गंगाजल की महत्ता को जानते थे मुगल सम्राट:

गंगा नदी की पवित्रता एवं उस पर विश्वास का अन्य उदाहरण भी हमें दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के प्रति दिन गंगाजल का उपयोग करने से मिल जाता है। अबुल फजल ने अपनी किताब ‘आईने अकबरी’ में लिखा है कि, मुगल सम्राट अकबर गंगाजल को अमृत समझते थे और सदैव गंगाजल का ही उपयोग करते थे।                                        (साभार: फोटो एवं लेख – गौरीशंकर कांडपाल)

 

 

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