उत्तराखंड

उत्तराखण्ड में हिन्दी अखबार और पत्रकार

अकबर इलाहाबादी ने कहा था ‘‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’ लेकिन आज कि स्थिति बिलकुल विपरीत है। हमें अखबार निकालने के लिए बहुत सारा धन, कुशल कर्मचारी और अत्याधुनिक प्रिटिंग मशिनों की जरूरत होती है, साथ ही साथ कुल ऐसे कुशल लोगों कि जरूरत होती है जो अखबार के वर्तमान में हो रहे व्यय को अपनी विज्ञापन नीति के माध्यम से निकाल सके। लेकिन जो विज्ञापन से आय कि स्थिति आज से दस वर्ष पहले थी वो अब विलुप्त हो रही है, और धीरे-धीरे समाचार पत्रां पर आर्थिक संकट हावी हो रही है। जिसमें हर वर्ग के समाचार पत्र शामिल हैं। जिसका कुछ कारण अत्याधुनिक तकनीक वाले सोशल मीडिया को भी जाता है जिसके आने से समाचार पत्रों के आय में काफी कमी आई है और विभिन्न समाचार पत्रों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। इस प्रतिस्पर्धा में बडे उद्योग घरानों के समाचार पत्र तो जिदां है पर मझौले और कम प्रसार वाले हिंदी अखबार कि आर्थिक स्थिति संकट में है।

यह आर्थिक संकट अब अखबार के साथ-साथ उन सभी पत्रकार बंधुओं को अपने लपेटे में ले रहा है, जो अपने परिवार का गुजारा एवं लालन-पालन समाचार पत्रों में काम कर के चलाते थे। हिंदी पत्रकारिता में कभी शान से काम करने वाले इन पत्रकारों के मनोबल में काफी कमी आई है और यह एक गंभीर विषय है जिससे तमाम हिंदी पत्रकार प्रभावित हो रहे हैं। मैने अपनी निजी अनुभव में यह देखा है कि आज उत्तराखण्ड मे हिंदी अखबार के लिए काम कर रहे कई ऐसे पत्रकार और छायाकार है जो अपने बच्चां के स्कूल फीस और घर में परिवार के किसी सदस्य के स्वास्थ खराब होने पर हर दिन संघर्ष कर रहे हैं और दिन व दिन यह संघर्ष बढ़ता ही जा रहा है। देहरादून शहर के अंदर कई अखबार के दफ्तर जहां 10 से 15 लोग काम कर रहे थे उनमें से कुछ तो बंद हो गये और कुब बस एक कमरे तक सीमित हो गये हैं।

कई ऐसे मामलों से भी मैं मुखातिव हुआ हूं जहां मैंने देखा कि कुछ पत्रकार बंधुओ को अपनी नौकरी इस लिए गवानी पड़ी कि वह समय के साथ अपने आप को नही ढाल पाये। और यह दौर उस समय का है जब पुराने पत्रकार ने अपने संस्था में आधुनीक कंप्यूटर से दूरी बना ली।

सन् 2006 से 2011 के अपने पत्रकारिता छात्र के काल में मुझे कई ऐसे संस्थान से जुडने का मौका मिला जहां मैने हिंदी पत्रकारिता कि दशा और दिशा पर मंथन होते हुए देखा। उन समय मैं अनेकां गोष्टी में शामिल हुआ और अपनी बात भी रखी। तब और अब कि वास्तविक स्थिति में बहुत अतंर आ चुका है।

उत्तराखण्ड के विभिन्न जिलों में जाने का मौका मुझे तब मिला जब मैं दून विश्वविद्यालय से जनसंचार में मास्टर डिग्री कि पढाई कर रहा था। उस समय भारत सरकार कि ओर से ’भारत निर्माण और जन सूचना अभियान’ चलाया जा रहा था। जो उत्तराखण्ड के सभी जिलों में पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के द्वारा चलाया जा रहा था। चमोली, टिहरी और बागेश्वर आदि जिलो में मैंने अपना समय बिताया और उन सभी स्थानीय पत्रकारों से मिला जो वहां विभिन्न समाचार पत्र और पत्रिका के लिए काम कर रहे थे। वह एक ऐसा समय था जब हिंदी पत्रकारिता में स्थानीय और दूरदराज के इलाके में काम कर रहे पत्रकार कि पूछ होती थी और उनकी महक देहरादून तक आती थी। समय में परिवर्तन हुआ और 2019 में जब मेरी बात दूरदराज के इलाके में काम कर रहे पत्रकार भाइयों से होती है तो उनमें अब ओ जोश और विश्वास नही दिखता, उलटे कुछ ऐसी बाते होती हैं जो मुझे पत्रकार बंधुओ से सुनने के बाद कई बार ऐसा लगता है कि अब आगे क्या होगा।

देहरादून जैसे शहर में दूरदराज के गांवों और पहाड़ों से आये पत्रकारिता के पढ़ाई करने वाले छात्रों को एक नया माहौल तो मिलता जहां उन्हें अत्याधुनिक क्लास रूम के साथ-साथ हाईटेक स्टूडियो में डालकर सपने दिखाया जा रहा है, पर क्या उन्हें हिंदी पत्रकारिता के प्रति जो आकर्षण दस साल पहले थी वह अब दिखाई देता है या नही इस पर भी अब चिंता जतानी चाहिए। अब समय आ गया है कि उत्तराखण्ड में मझौले और कम प्रसार वाले हिंदी अखबार और पत्रकार को संकट से बचाने के लिए हमें विचार करना होगा और हमें इसे गंभीरता से देखना होगा।

लेखक-विकास कुमारएक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में जनसंचार के क्षेत्र में पिछले आठ वर्षो से काम कर रहे हैं और पब्लिक रिलेशन कांउसिल ऑफ इण्डिया (पीआरसीआई) देहरादून चैप्टर के सचिव हैं।

(यह लेखक का निजी विचार है)

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